हवा में बढ़ते जहर की वजह से भारत में लगभग 11 लाख लोग गवांते हैं अपनी जान

हवा में बढ़ते जहर की वजह से भारत में लगभग 11 लाख लोग गवांते हैं अपनी जान

नरजिस हुसैन

दिल्ली में वायु प्रदूषण से होने वाली सांस की बीमारियां पिछले कुल सालों से तेजी से बढ़ी हैं। खासकर दिवाली के आस-पास तो माहौल तकरीबन एक चैंबर में तब्दील हो जाता है। जिसमें सुबह के वक्त भी (जो अमूमन तरोताजा माना जाता है) खुलकर सांस लेना जानलेवा होता जा रहा है। दिवाली फिर इसी बीच दिल्ली से सटे राज्यों में पराली जलाए जाने से पूरे उत्तर भारत में वायु प्रदूषण खासा बढ़ता जा रहा है। दिल्ली के डॉक्टरों की माने तो इस वक्त दिल्ली की आबोहवा में सांस लेने वाला हर इंसान लगभग 15-20 सिगरेट रोजाना पी रहा है।

पिछले कुछ सालों में बच्चों पर यह प्रदूषण कई तरह से असर डाल रहा है। इसका असर न उनके स्वास्थ्य पर बल्कि उनकी रोजाना की जिंदगी पर भी पड़ रहा है। यही नहीं पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ते वायु प्रदूषण से अलग-अलग उम्र के लोगों के मरने का ग्राफ बढ़ा है। अक्टूबर, 2018 में अमेरिका की छपी एक रिपोर्ट State of Global Air 2018 (https://www.stateofglobalair.org/sites/default/files/soga-2018-report.pdf) में बताया गया है कि दुनिया में इस समय 90 फीसदी लोग वायु प्रदूषण का सामना कर रहे हैं। हालांकि, रिपोर्ट में यह साफ कहा गया है कि भारत में इस प्रदूषण के चलते 11 लाख लोग अपनी जान गवांते हैं। यह आंकड़े चौंकाने वाले हैं क्योंकि इससे न सिर्फ अस्थमा बल्कि दिल संबंधी बीमारियां, हार्ट अटैक और सासं संबंधी पुरानी बीमारियां, गले और छाती में संक्रमण और फेफड़ों की बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। मौजूदा हालात को देखते हुए  आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में अगर वायु प्रदूषण को रोकने की कोशिश नहीं की गई तो इसका खामियाजा सबसे ज्यादा बच्चों और बूढ़ों को भुगतना होगा।

पिछले साल यानी 2018 में जारी हुई Global Burden of Disease Study, 2018 (https://www.thelancet.com/action/showPdf?pii=S2214-109X%2818%2930448-0) में बताया गया है कि भारत में 2017 में सबसे ज्यादा लोग दिल की बीमारियों से मरे और दूसरे नंबर पर फेफड़ों से जुड़ी पुरानी या क्रोनिक बीमारियों Chronic Obstructive Pulmonary Disease (COPD) से मरने वालों की तादाद 10 लाख थी। यहां यह बता दें कि COPD कोई संक्रामित बीमारी नहीं है लेकिन हां, लगातार लंबे समय तक प्रदूषित हवा में सांस लेने से यह उन लोगों को भी होती है जो किसी भी तरह का नशा या धुम्रपान नहीं करते। इन्हें गैर-संक्रामित बीमारियां या Non-Communicable Disease भी कहते हैं। इसी पर आगे शोध यह बताता है कि जहां दुनिया में 55 साल के बाद या तभी से लोगों में सांस संबंधी जटिल बीमारियां होती हैं वहीं भारत में यह उम्र घटकर 45 हो गई है। यानी ये कि देश में सांस की बीमारियां औसतन 45 साल से शुरू हो जाती हैं जिसपर सरकार को तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि लोगों में इन बीमारियों को लेकर जागरुकता की भारी कमी है और जहां जागरुकता है भी वहां स्वास्थ्य खासकर सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच कम है। भारत आज भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच और क्वालिटी के मामले में चीन, श्रीलंका और बांग्लादेश से पीछे है। देश लगातार बार-बार स्वास्थ्य लक्ष्यों को पाने की कोशिश में पीछे होता जा रहा है।

इसके साथ ही लोगों को यह मालूम ही नहीं होता कि फेफड़ों से जुड़ी पुरानी हो गई बीमारियां संक्रमित हो जाती हैं और इस वजह से साथ रहने वाले को भी देर-सवेर अपनी गिरफ्त में ले लेती है। तो इस तरह बीमारी का फैलाव तेजी से और लगातार हो रहा होता है और क्योंकि इससे जुड़े सही आंकड़े सरकार तक नहीं पहुंच पाते लिहाजा फेफड़ों से जुड़ी तमाम गंभीर और गैर-गंभीर बीमारियां सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों के दायरे में अपनी असरदार पहुंच नहीं बना पाती।

सबसे बड़ा सवाल जो फिलहाल समाज और सरकार के सामने है वह यह है कि बच्चों को हम किस तरह से इस जानलेवा प्रदूषण से बचाएं। बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता युवाओं के मुकाबले काफी कम होती है। इनके फेफड़े अभी इन तमाम तरह के प्रदूषण से लड़ने के लिए तैयार हो ही रहे होते हैं ऐसे में उनमें संक्रमण अगर होता है तो उसका असर जीवनभर उनके फेफड़ों को झेलना पड़ता है। लगातार प्रदूषण को झेलने से उनका फेफड़ा कभी विकसित हो ही नहीं पाता है। मास्क लगाना एयर प्युरिफायर में बैठे रहना ही समस्या का हल नहीं है। इसके अलावा इसका असर उनकी रोजाना की जिन्दगी पर भी पड़ता है। उन्हें स्कूल जाने के लिए मास्क लगाना, वापस आकर सिर्फ घर में ही रहना, बाहर खेलकूद सब बंद करना पड़ता है। वायु प्रदूषण के मामले में दिल्ली आज न सिर्फ देश बल्कि दुनिया में सबसे प्रदूषित शहरों में गिना जाने लगा है। अगर हालात ऐसे हीहे तो इसका जिम्मेदार हम किसे ठहराएगें।

अब एक बड़ी मुसीबत यह भी है कि डॉक्टरों के मुताबिक COPD सिर्फ दूषित हवा में सांस लेने से ही नहीं होता बल्कि घरों के अंदर मौजूद धुंआ भी इसका जिम्मेदार है। विदेशों में यह संक्रमण तंबाकू के ज्यादा इस्तेमाल से होता है लेकिन, भारत जैसे विकासशील देश में घर के अंदर का धुआं और बाहर की दूषित हवा के जरिए इसके मरीजों की तादाद बढ़ती जा रही है। पुणे के चेस्ट रिसर्च फांउडंशन के निदेशक डॉक्टर संदीप सालवी का मानना है कि गोबर के उपलों और बायोमास का ईंधन के तौर पर इस्तेमाल ग्रामीण इलाकों में इसके फैलाव के लिए जिम्मेदार है वहीं शहरी आबादी हवा में फैले इस जहर में सांस लेने को मजबूर है।

बहरहाल, मरीजों का COPD टेस्ट के लिए ग्रामीण क्या शहरी भारत में भी कोई डॉक्टर खास तव्वजो नहीं देता। वजह है मंहगे टेस्ट, मरीज की ढिलाई और इसको कोई बड़ी बीमारी न मानने की आदत। इस वजह से हर साल हजारों लाखों ऐसे मामले दर्ज ही नहीं हो पाते और धीरे-धीरे वे बड़े संक्रमण में तब्दील हो जाते हैं। जिसको पूरी तरह से कभी भी ठीक नहीं किया जा सकता। सबको और खासकर सरकार को तेजी से पैर पसारती इस बीमारी को थामने के लिए गंभीरता से काम करना होगा, नीतियां बनानी होगी।

 

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